१
पेट की आग बुझाती है,
शिक्षा और रोजगार की व्यवस्था।
गरीबों के लिए यह सब बेमानी है,
ना शिक्षा की सहूलियत है,
ना नौकरी का भरोसा ही।
धर्म और जन्म में मग्न राजनीति को,
शिक्षा और रोजगार से क्या काम?
सब जानते हैं “आग अच्छे हैं”,
पेट की आग,
धर्म की आग,
कट्टरता की आग,
जातिवाद की आग,
सब की जरूरत है,
सत्ता हासिल करने के लिए।
कुर्सी पर जमे रहने के लिए,
जलाना जरूरी है, बुझाना नहीं!
२
पर पेट की आग,
थोड़ी अलग है,
थोड़ी जिद्दी है,
थोड़ी कड़क है।
जलती रहे,
तो बदन सुलगाती है,
बुझे नहीं, तो जुबान पर चढ जाती है,
और जोर जोर से चिल्लाती है,
“मेरा हक कहां है?”
पर सुने कौन?
मूक-बधिर जनता?
सत्ता-लोलुप नेता?
अकर्मण्य नौकरशाह?
कहा ना,
पेट की आग है,
बेहद जिद्दी है।
कोई सुने नहीं,
तो बहक जाती है,
बुझे नहीं,
तो सड़क पर छलक आती है।
जुबान से सड़क पर छलकने वाली आग,
होती है भयावह।
सब कुछ लील जाती है,
होती है गुस्से वाली,
बस भड़कती ही जाती है,
बुझाओ नहीं, तो प्रलय लाती है।
३
बुझाएगा कौन?
शासक के पास माचिस है, दमकल नहीं।
नौकरशाह बुलडोजर रखते हैं, मरहम नहीं।
न्यायिका संतुलन चाहती है, निर्णय नहीं।
जनता शुतुरमुर्ग पालती है, शेर नहीं।
बुझाएगा क्यों?
आग बहुतों के काम आती है,
सत्ताधारी, विपक्ष, उन्मादी,
सब खुश रहते हैं।
सब की नाकामियां छुप जाती हैं,
सारी गलतियां धुआं हो जाती हैं,
कुर्सी पास नजर आती है।
और पेट की आग?
पेट, जुबान, और सड़क के बाद,
दिलो-दिमाग पर छा जाएगी,
अन्दर-बाहर बस यही मंजर होगा,
हर तरफ़ आग का समन्दर होगा।
जलती हुई आग का रथ,
पेट से जुबान तक,
जुबान से सड़क तक,
सड़क से संसार तक,
चलता रहेगा क्रम,
अनवरत,
अग्निपथ,
अग्निपथ।
४
आग से खेलने वाले,
आग में जल जाएंगे,
चुप रहने वाले,
चुपचाप जलेंगे,
पर खत्म जरूर होंगे।
जब सब्र टूटेगा,
जलजला आएगा,
सब कुछ जलाएगा।
फिर शायद एक नया भारत?
असंभव!!
यादें भी राख हो जाएंगी,
हम वही गलतियां दोहराएंगे,
सांपों को फ़िर दूध पिलाएंगे,
उन्मादियों को फ़िर अपना मसीहा बनाएंगे,
भारत माता के नाम पर,
भारत माता की फ़िर बलि चढ़ाएंगे।
चलता रहेगा क्रम,
अनवरत,
अग्निपथ,
अग्निपथ।
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